raja harishchandra ki kahani: दोस्तों आज हम फिर एक नई प्रेरणादायक कहानी लेकर आये जो आपको एक अलग ही सादगी का अनुभव कराता है.
वैसे यह कहानी तो बहुत पुरानी है मगर यह कहानी आज भी हमारे ज़हन में मौजूद है.
यह कहानी है राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र की जिन्होंने अपने सत्य और निष्ठा पर एक उच्च सम्मान की उपाधि प्राप्त की है.
उन्हें युगों-युगों से लोग सत्यवादी हरिश्चंद्र के नाम से जाने जाते हैं.
हम सभी बचपन से ही सुनते आ रहें हैं कि जब-जब सत्य की बात होती है तो हमेशा कहते हैं कि क्या तू हरिश्चंद्र है जो सत्य की बात करता है. शायद ऐसा कोई न हो जो हरिश्चन्द्र के बारे में नहीं जानता हो.
तो आइये पूरी कहानी पढ़ते हैं सत्यवादी हरिश्चंद्र की ……
कौन थे हरिश्चंद्र : – सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र इक्ष्वाकु ( सूर्यवंशी ) वंश के एक सत्यवादी महान राजा थे. वे त्रेता युग में भगवान श्रीराम के पूर्वज माने जाते हैं. उनकी सत्यता और प्रजा के प्रति प्रेम भाव देख प्रजा जन बहुत खुश रहते थे.
वे सत्यवादी के साथ-साथ एक महान दानवीर भी कहलाते थे.
राजा हरिश्चन्द्र का जन्म : -सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का जन्म ८०० से ९०० ईशा पूर्व बताई जाती है.
राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र का परिवार :-
पिता का नाम : त्रिशांकु
माता का नाम : अज्ञात
पत्नी का नाम : शैव्या उर्फ़ तारामती
पुत्र का नाम : रोहिताश्व
राजा हरिश्चंद्र का इतिहास एवं कहानी :- यह बात त्रेता युग की है जब राजा हरिश्चंद्र त्रेता युग के राजा थे. वे बढ़े ही सत्यवादी और धर्मात्मा थे. सारी प्रजा उनकी सम्मान करती थी. आस-पास के चारों ओर उनकी यश और कीर्ति फैली हुई थी.
एक दिन की बात है, जब राजा हरिश्चंद्र शिकार के लिए जंगल जा रहे थे. तभी वहां पर कुछ स्वर सुनाई दी.
वह चिल्ला रही थी बचाओ …मुझे बचाओ,,,
यह सुनकर राजा उस आवाज की ओर आगे बढ़ने लगा. उन्हें लगा की कोई अत्याचारी किसी अबला पर अत्याचार कर रहा है, इसलिए वे दूर से ही चिल्लाने लगे की कौन पापी है जो किसी अबला पर अत्याचार कर रहा है.
यह कहते हुए जब पास गए तो वहां एक मुनि तपस्या में लीन थे,
जब उनकी बात सुनी तो ऋषि का तप बीच में ही भंग हो गय. जिससे ऋषिवर राजा पर बहुत क्रोधित हुए | यह देख राजा बहुत दुखी हुए और उनसे क्षमा याचना करने लगे.
परन्तु ऋषि क्रोधवश राजा को श्राप देने की बात कही और कहने लगे कि– ” राजन ! तुम बिना सोचे समझे मेरी वर्षों की तपस्या भंग की है. इलसिए मैं तुझे श्राप देता हूं कि , आज से तेरा राज्य नष्ट हो जाएगा. ”
राजा ने मुनि से बहुत प्रार्थना की उनसे विनती की कि मुझे क्षमा करें भगवन मुझसे अनजाने में गलती हो गई. परन्तु मुनि पर कोई भी बात असर न हुआ वे बहुत क्रोधित थे.
और अंत में थक-हार कर अपनी प्रजा की चिंता देख राजा ने मुने से कहा — ” हे ऋषिवर ! इसके बदले में आप मुझसे जो भी मांगेंगे मैं दूंगा. ”
इस बात पर मुनि का क्रोध थोड़ा कम हुआ और कहा — ” तो ठीक है ! मैं तेरा वचन याद करूंगा | समय आने पर लूंगा. ”
यह कहने के बाद ऋषि वहां से चला गया. और राजा दुखी होते महल की ओर लौट गया | और रात भर अपनी गलती के बारे में सोचता रहा.
कुछ दिन बाद राजा हरिश्चंद्र के बैठे हुए सभा में अचानक जोर से आवाज आई….हरिश्चंद्र…..
जैसे ही विश्वामित्र को देखे राजा घबरा गए ….
विश्वामित्र कहने लगे — ” राजन ! आज मैं तेरा वचन पूरा करवाने आया हूँ. ”
राजा ने कहा — ” हे ऋषिवर ! कहे मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ. ”
ऋषि विश्वामित्र ऊंची कड़क आवाज में कहने लगे कि — ” मुझे अपना पूरा राज्य दे दो. ”
इस पर राजा आश्चर्य हो गए और कहने लगे — ” मेरा राज्य ? ”
ऋषि — ” हां तेरा राज्य ! अपना वचन याद है न , अगर अपना वचन पूरा न कर सके तो मेरा श्राप पूरा अयोध्यावासी पर पड़ेगा. ”
यह सुनकर सारे मंत्रीगण और प्रजा स्तब्ध रह गए.
राजा जिस तरह अपने सत्य पर अडिग रहता है अपनी कर्तव्य के अनुसार कहता है –” ठीक है ऋषिवर ! मैं अपना पूरा राज्य आपको देता हूं. ”
उसके बाद राजा अपनी पत्नी और बच्चे के साथ उस राज्य को छोड़कर वहां से चला गया. जाते हुए जंगल में उन्हें पीछे से एक आवाज सुनाई दी और जब पीछे मुड़कर देखता है तो ऋषि विश्वामित्र उन्हें पुकार रहे हैं.
वे उनके पास गये और कहने लगे — ” हे ऋषिवर ! मुझे क्षमा करें मुझसे कोई भूल हो गई है क्या ? ”
ऋषि ने कहा — ” राजन ! तू कुछ भूल रहा है ! तूने दान तो दिया पर दक्षिणा कहां है , दान के साथ दक्षिणा भी जाती है यह तुम्हें पता नहीं है क्या ? ”
हरिश्चंद्र तो अपना सब कुछ दान दे दिए थे उनके पास कुछ बचा था नहीं.
ऋषि ने ऊंची आवाज में दुबारा कहने लगे — ” अपने वचन का पालन करो | दक्षिणा अभी शेष है. ”
राजा ने कहा — ” ठीक है ऋषिवर ! परन्तु अभी आपको देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है. कृपा करके मुझे कुछ समय दें. ”
यह कहकर राजा रानी और राजकुमार बहुत दूर चले गए. इधर-उधर भटकते हुए कई दिन बीत गया.
तभी घूमते-घूमते वे तीनो मंदिरों के नगर वाराणसी में पहुंचे.
राजा मन ही मन सोचने लगा — ” यहीं कुछ काम मिल जाए जिससे मैं ऋषिवर का दक्षिणा पूरा सकूं. ”
जाते हुए एक भव्य मंदिर दिखाई दिया वहां जाकर राजा एक ब्राम्हण से कहता है — ” हे भगवन ! क्या कोई काम मिल सकता है क्या , हम बहुत देर से आये यात्री हैं. ”
उन्हें देख ब्राम्हण कहता है — ” देखने से भले एक क्षत्रिय लगते हो एक कुलीन परिवार से लगते हो. तुम जैसो के लिए यहां कोई काम नहीं , बल्कि जितना चाहे उतना भोजन ले सकते हो. ”
यह कहकर ब्राम्हण उनको वहां से भगा देता है. दुखी हताश हुए राजा और उनका परिवार वहां से चला जाता है. जाते हुए राजा को पीछे से कुछ आवाज सुनाई देती है.
और जब पीछे पलट कर देखता है तो ऋषि विश्वामित्र दिखते हैं वे कहते है — ” राजन ! एक महीना पूरा हो गया है , कहां है मेरा दक्षिणा ? ”
राजा कहते हैं — ” मुनिवर ! महिना पूरा होने में कुछ क्षण शेष हैं, संध्या होने तक आपका दक्षिणा आपको मिल जाएगा. ”
राजा ने यह कह तो दिया फिर सोचने लगा — ” इतने कम समय में मैं कैसे ऋषि का दक्षिणा चुकाऊंगा. ”
यह कहकर राजा बाज़ार की ओर कुछ काम के लिए चला गया …हर किसी को काम के लिए कहता मगर यह कहकर मना कर देते कि तुम दुबले पतले हो क्या काम कर सकते हो ?
और इस तरह से बार अपने आप को बाज़ार में बेचने की कोशिश करता मगर उसे कोई लेता नहीं है. तभी एक ब्राम्हण ने कहा कि अगर तुम्हारी पत्नी को बेचना है तो बताओ कम से कम वह घर का काम तो कर लेगी.
इस पर राजा ने मना कर दिया.
मगर रानी अपनी पति की यह दुर्दशा देखि नहीं गई इसलिए उन्होंने राजा से कहा — ” हे महराज ! आपकी परेशानी आपकी दुःख मेरी है आपकी हर चीज पर मेरा भी हक़ है इसलिए मैं ब्राम्हण के यहां के काम के लिए चली जाती हूं. ”
यह कहकर ब्राम्हण के साथ चलने को तैयार हो जाती है. हालात को देखकर राजा अपनी पत्नी तारामती को ब्राम्हण के साथ जाने से भी नहीं रोक सकता. उसके बदले में ब्राम्हण हरिश्चंद्र को कुछ मूल्य देता है और रानी तारामति को अपने साथ ले जाता है साथ में उसके बच्चे को भी. फिर भी उतने मूल्य में ऋषि का दक्षिणा पूरा नहीं हो पाता,
इसलिए अपने आप को दुबारा बेचने के लिए उस बाज़ार में जाता है. तभी एक चंडाल उसे खरीदने को तैयार हो जाता है. उसे उसका कुछ मूल्य देता है जिससे ऋषि विश्वामित्र की दक्षिणा की पूर्ति हो जाती है.
अब राजा हरिश्चंद्र उस मूल्य को लेकर वचनानुसार ऋषि विश्वामित्र को दे देता है. उसके बाद राजा हरिश्चंद्र उस चंडाल के साथ शमशान चला जाता है.
वहां पहुंच कर चंडाल उसे उसका काम समझाता है कहता है कि — ” आज से तुम शवो को देखना और उनसे कर वसूल करना इसमें से कुछ हिस्सा राजा और कुछ हिस्सा मेरा तथा बांकी बचा हिस्सा तेरा होगा. ”
उसके बाद हरिश्चंद्र चंडाल के कहानुसार काम करता दिन बीतते गए हरिश्चंद्र आग के पास हर रोज़ रहते-रहते बहुत दुबला पतला हो गया. उसकी बड़ी-बड़ी ढाढ़ी हो गई. उसकी पत्नी भी ब्रम्हाण के यहां काम करते-करते एक नौकरानी की भांति हो गई.
एक दिन उनका बच्चा खेलने के लिए बगीचे के पास गया था , तभी एक सांप ने उस बच्चे को काट लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई.
अपने बच्चे की यह हालत देख रानी बहुत रोई और ब्राम्हण से उसके क्रिया-कर्म के लिए कुछ रूपये मांगी मगर वह क्रूर ब्राम्हण कुछ दिया नहीं. वह रानी अपने बच्चे को लेकर सीधे शमशान चली गई.
वहां पहुंचते ही द्वार पर कर के लिए खड़ा राजा उससे कर मांगने लगा , मगर वह अबला स्त्री ( रानी तारामती ) कुछ मूल्य पकड़ी थी नहीं.
फिर हरिश्चंद्र उससे कर की ,मांग करता और कहता है कि यह मेरे मालिक का हुक्म है आपको कर देना ही पड़ेगा. रात होने की वजह से वे एक-दुसरे को पहचान नहीं रहे थे. मगर आवाज से राजा अपनी तारामती को पहचान लेता है और थोड़ा पास जाकर देखता है कि यह तो मेरी पत्नी और मेरा बच्चा है इसे क्या हुआ.
राजा को रानी तारामती देख बहुत रोने लगती है. और कहती है हमारा बच्चा अब दुनिया में नहीं रहा. और जोर-जोर से चीखती-विलक्ति हुई रोती है.
पहचानने के बाद भी राजा अपने मालिक के आदेशानुसार अपनी पत्नी तारामती से कर की मांग करता है.
तारामती कहती है — ” आपका बच्चा है फिर भी कर मांग रहे हो. तुम्ह्ने इतनी भी दया नहीं है. कम-कम से उसे मरने के बाद भी चैन से रहने दो. ”
यह सुनकर राजा अंदर-ही-अंदर रोता हुआ कहता है — ” यह मेरी मजबूरी है ! ”
इस बात पर रानी तारामती गुस्से से कहती है — ” तो ठिक है ! मेरे साड़ी का आधा हिस्सा कर समझकर ले लो. ”
यह कहकर रानी तारामती अपनी साड़ी का आधा हिस्सा करने ही वली थी कि वहां पर एक अद्भूत प्रकाश दिखाई दी वहां इन्द्रदेव सहित समस्त देव गण और ऋषि विश्वामित्र प्रकट हुए.
देवराज इंद्रा ने कहा — ” ठहरो ! हम सब तुम्हारी परीक्षा ले रहे थे. हे राजा हरिश्चंद्र हम तुम्हारी सत्यवादी और धैर्यता की परीक्षा ले रहे थे. तुम इस परीक्षा में सफल हुए. ”
राजा हरिश्चन्द्र कहे — ” हे भगवन ! ऐसी परीक्षा का क्या जिसमें मेरा पुत्र ही चला गया. ”
इस पर देवराज इंद्र मुस्कुराते हुए कहने लगे — ” हरिश्चंद्र तुम्हारा पुत्र बिलकुल ठीक है यह भी इस परीक्षा का हिस्सा बना हुआ था. ”
तभी राजा जमीन पर पढ़े अपने पुत्र की ओर देखता है उसका पुत्र एकदम ठीक रहता है और मुस्कुराता हुआ अपनी मां के पास चला जाता है. ”
इन्द्रदेव कहते हैं — ” हे सत्यवादी हरिश्चंद्र ! सचमच तुम सत्य और निष्ठां के रूप हो लोग तुम्हें युगो-युगो सत्यवादी हरिश्चंद्र के नाम से जाने जायेंगे ”
यह कहकर देवराज इंद्रा और समस्त देवगण वहां से विलुप्त हो गए.
” और इस प्रकार से राजा हरिश्चंद्र सत्यवादी हरिश्चंद्र के नाम से विख्यात हुए . “
और वापिस अपने राज्य में आकर अपनी प्रजा-जन की सेवा करने लगे.
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