akbar aur birbal ki kahani : गुलाम को मार डाल – अकबर बीरबल की कहानियां

akbar aur birbal ki kahani : संध्या का समय था रोज की तरह अकबर बादशाह अपने बाग़ में दरबारियों से साथ राजकीय विषयों पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि इतने में तानसेन ने अपनी सारंगी मिलानी शुरू की.

सबका ध्यान तानसेन के बाद्य की तरफ आकृष्ट हो गया | दरबार का शेष कार्य स्थगित कर दिया गया. तानसेन ने एक मनहरन तान अपनी सारंगी पर छेड़ दी. उसकी तान से मधुर गूंज से बाग़ के चारों तरफ वाह-वाह की ध्वनी आने लगी.

बादशाह अकबर आनंदमय तकिये के सहारे लेटा हुआ सुन रहा था. चरों तरफ आनंद ही आनंद छा रहा था.

इसी समय नगर का कोतवाल दो आदमियों को लिए हुए वहां आया. उन आदमियों के कपड़े खून से लथपथ हो रहे थे. कोतवाल के अचानक आ जाने से वहां का रंग भंग हो गया.

बादशाह झल्ला उठा और झिड़ककर कोतवाल से बोला–” क्या तुमको इतनी भी तमीज नहीं हुई यह समय दरबार का नहीं है ,ऐसे मनबहलाव के समय बंदियों का लाना कहां तक उचित था. ये कैदी रातभर हवालात में रखे जा सकते थे. कल दरबार लगने पर इनके मामले पर विचार किया जा सकता था. फिर इतनी आतुरता दिखलाने की क्या आवश्यकता थी ? ”

बादशाह की नाराजगी से कोतवाल सहम सा गया. परन्तु बिना असलियत बतलाये भी काम नहीं चलते देखा.

कुछ सोच समझकर उसने कहा–” हे जहापनाह ! इसमें संदेह नहीं कि मैं इनको कल सुबह लेकर हाजिर हो सकता था. परन्तु इनका मामला बड़ा पेचीदा है जिस कारण मुझको विवश होकर इसी समय आना पड़ा. ”

उसकी ऐसे बाते सुनकर बादशाह कुछ शांत होकर बोला–” ठीक है ! इनका अभियोग सुनाओ. ”

कोतवाल ने कहा–” हे जहापनाह ! जब आज मैं नगर में गस्त लगाते हुए व्यापारियों की मंडी में पहुंचा तो क्या देखता हूँ कि एक जगह बहुत से आदमियों की भीड़ लगी हुई है , जब वहां गया तो इस अपरिचित मनुष्य को इस नगर व्यापारी से मार पीट करते देखा.

यह अपरिचित मनुष्य नगर व्यापारी को झिड़क रहा था–” कि अरे दुष्ट ! आज से पांच सात वर्ष पहले तू मेरा दास था और वहां से छिप कर भाग गया है. बड़े परिश्रम के बाद आज तू पकड़ में आया है. अब मेरे रूपये अदा कर.

इसको झिड़कते देख नगर व्यापारी बोला –” नालायक ! दास तो मेरा तू है तुझे मैं कितने ही वर्षों के ढूढ़ रहा था , भाग्यवश आज तू मेरे हाथ आया है.

इनकी आपस की ऐसी लड़ाई देखकर मैं इन्हें गिरप्तार कर सरकार आपके पास आया हूँ. अब आपकी जैसी मर्जी हो इनका फैसला कीजिये. ”

बादशाह ने उनसे साक्षी मांगी.

नगर सौदागर ने कहा–” हे जहापनाह ! आज पाँच वर्ष का अर्सा हुआ कि मैं अपना नगर ईरान छोड़कर दिल्ली आ बसा हूँ , और यह मेरा नौकर इससे दो वर्ष पहले ही मुझको छोड़कर भाग गया था.

आज जब मैं बाजार में खरीद फरोक्त कर रहा था तो यह भी अचानक वहीं आ पहुंचा और मेरा हाथ पकड़कर बोला–” तू मेरा गुलाम है , तू मेरा गुलाम है. ” मेरे व्यापारी होने का सारा नगर साक्षी है ”

जब पहला व्यापारी अपना बयान दे चूका तो दूसरा विदेशी व्यापारी बोला–” हे जहापनाह ! यह झूठ बोलता है. क्योंकि ईरान का व्यापारी मैं हूं. इस शहर में मैं बिलकुल नया नया आया हूं. इस कारण यहां का एक भी नागरिक मुझे नहीं पहचानता है.

यह जो इस नगर में शेरअली के नाम से विख्यात हो रहा है. यह इसका फर्जी नाम है. यह नसीबा नामी मेरा गुलाम है. पुरे सात वर्ष का ज़माना गुजरा जब मैं इसे दूकान पर छोड़ बाहर व्यापार के लिए गया था. मौका देख यह मेरी बहुत बड़ी रकम चुराकर भाग गया था. आज सात वर्षों के बाद यहां मिला है. ”

इनका अभियोग भी बड़ा पेचीदा जान पड़ता था. दोनों ही सौदागर के लिवास में थे और दोनों की मुखाकृति भी अमीरों जैसी थी. जब यह मामला चल रहा था.

इसी बीच एक सरदार साहब आ पहुंचे और नगर व्यापारी शेरअली को कैदी की सूरत में देखकर बोले–” शेरअली ! यह तुम्हारी क्या हालत है. तुम कैदी की सूरत में क्यों दिखाई पड़ते हो. ”

शेरअली को इस सरदार के आने से बड़ी तसल्ली हुई और बोला–” सरदार साहब ! आप भी जानते हैं कि मैं कितने वर्षों से इस नगर में व्यापार कर रहा हूँ और यहां का बच्चा-बच्चा मुझे पहचानता है. समय के फेर से देव की अकृपा से आज मैं अपने ही दास द्वारा अभिशापित किया जा रहा हूँ. ”

सरदार बादशाह को चीत्कार बोला–” हे जहापनाह ! यह शेरअली आजकल का व्यापारी नहीं है. बल्कि लड़ाई के समय में इसने कई बार सरकार को कुछ रूपये की मदद देकर राजभक्ति प्रकट की है. ”

( शेरअली की तरफ इशारा करके ) ” शेरअली ! यह तुम्हारी ही उदारता का कारण था कि मैंने गुजरात ऐसे सामर्थ्यशाली अधिपति पर विजय प्राप्त की थी. ”

सरकार की तरफ से तुमको अभी तक उसका कोई पुरष्कार नहीं मिला है ?

सरदार की इस सारगर्भित साक्षी से बादशाह खुश हो गया और कहा–” शेरअली को उस उपकार का बदला चुकाया जाएगा.

बादशाह ने ईरान के सौदागर की तरफ इशारा करके कहा–” क्यों भाई ! तुमको किसीकी साक्षी दिलानी है क्या ? यदि है तो उसे सामने पेश करो .

सरदार की साक्षी से तो नगर व्यापारी का शेरअली होना साबित होता है. ”

ईरान व्यापारी बोला–” हे जहापनाह ! मैं इस स्थान पर पहली बार आया हूँ , यहां की भाषा तक नहीं समझता और न यहांपर मेरा कोई परिचित है. अभी मेरा सामान भी बाहर ही पड़ा हुआ है. उसको यहाँ लाने में अभी कई दिन व्यतीत हो जायेंगे , फिर मैं किसकी साक्षी दूँ.

हां इतना जरुर है की मैं दूर देशों से सुनता आ रहा हूँ कि आपके दरबार में बड़ा सच्चा न्याय होता है इसलिए कृपया हमारा उचित न्याय करें. ”

दोनों आदमियों को बात सुनकर एक सभासद ने बादशाह से अर्ज किया–” हे जहापनाह ! यह मामला बड़ा ही पेचीदा लगता है. इसका फैसला कवि गंग से कराया जाय. वे वैसे मामलों को महज खिलवाड़ मात्र से समझा करते हैं.

बेचारा कवि गंग बड़ा घबराया और बोल उठा –” हुजुर ! बीरबल के रहते इसका न्याय करने की दुसरे की आवश्यकता नहीं है अतएव इसका न्याय बीरबल से ही होनी चाहिए. ”

वे इससे कभी इनकार नहीं कर सकते. बादशाह तो पहले से ही समझ गए थे कि इसका निपटारा बीरबल ही कर सकता है.

बादशाह ने बीरबल को आज्ञा दिया कि –” बीरबल ! इस मामले को अच्छी तरह से जाँचकर न्याय करो. ”

बीरबल ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया. बीरबल की कारवाई शुरू हुई. वह दोनों व्यापारियों को पास बुलाकर उनसे बहुत प्रकार की पूछ-ताछ की मगर कुछ भी मतलब की बात हासिल नहीं हुई.

तब उसने एक नई तरकीब निकाली.

बीरबल उन दोनों सौदागरों को एक जगह खड़ा कराकर एक जल्लाद को नंगी तलवार लिए हुए बुलाया.

जब वह जल्लाद वहां आया तो बीरबल ने उसे कहा–” क्या देखता है ! ” गुलाम को अभी मार डाल ”

बीरबल के मुख से इतना शब्द निकलते ही जल्लाद तलवार लेकर झपटा. उसका झपटना देख कि नगर व्यापारी यानी नकली शेरअली अलग हट गया. बीरबल उसकी ऐसी हरकत देखकर तुरंत ही समझ गया कि असली व्य्यापारी कौन है ?

उसने उसकी कलाई पकड़ ली. नकली शेरअली ने भी अपना गुलाम होना स्वीकार कर लिया और वह तुरंत कैद कर लिया गया.

अनन्तर दरबारियों के पूछने पर उसने कहा–” असल में मैं ही अपने इस इरानी मालिक असली शेरअली का गुलाम था. मेरी आदत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी , मैं हमेशा इसे हटाने की टाक में रहता था , जब मेरा मालिक मुझे दूकान पर अकेला छोड़कर बाहर चला गया तो मेरी नियत बिगड़ गई और उसका बहुत सा धन लेकर वहां से भाग निकला.

घूमते फिरते यहां पहुंचा और उस चोरी के रूपयों से व्यापार करने लगा. चूँकि इस काम को मैंने अपने मालिक के यहां ही सीख लिया था इस कारण व्यापार चलाने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. और मेरा काम धड़ल्ले से चलने लगा.

अब मैं असली शेरअली के नाम से विख्यात हो गया. इतने दिनों के परिश्रम से जो मैंने भारत-वर्ष में अपना नाम प्रख्यात किया था सो आज दैव के प्रकोप से मिटटी में मिल गया. अब मुझे गुलामी करते नहीं बनेगी अतएव मुझे प्राण दंड देने की आज्ञा दे दें. ”

बादशाह ने शेरअली से पूछा –” शेरअली ! अब तुम इस आदमी को क्या सजा देना चाहते हो. ”

शेरअली ने कहा–” हे जहापनाह ! अब मुझे इसकी कोई जरुरत नहीं है मेरी बात रह गई अब आप अपने हिसाब से निर्णय ले सकते हैं. ”

शेरअली की ऐसी संतोषप्रद वाक्यों को सुनकर बादशाह को बड़ी प्रसन्नता हुई परन्तु उसने अपना राज किसी पर जाहिर न किया. बेचारा अपराधी नसीबा गुलाम जीवन की आश त्यागकर एक तरफ खड़ा था.

बादशाह उसकी तरफ लक्ष्य कर बोला–” नसीबा ! तुम्हारा अपराध प्राण-दण्ड पाने के योग्य है परन्तु तूने मेरे साथ उपकार किया है और मैंने अभी तक तुझे उसका कुछ बदला भी नहीं चुकाया है इसलिए तुझे जीवन-दान देता हूँ और पुरस्कार में तुझे दरबार का एक काम सौंपता हूँ.

अब तुम उसी काम के सहारे अपना बाकीं का जीवन व्यतीत करना. ”

नसीबा गुलाम ख़ुशी के मारे फुला न समाया और बड़ी प्रसन्नता से उस पद को स्वीकार किया.

बादशाह ने मन में विचार किया कि इस न्याय में बीरबल ने कमाल किया है. इस कारण से उसको भी कुछ उचित पुरस्कार देना उतम होगा.

बादशाह ने तीन पोशाक मंगवाई. उसमें पहली कुछ आभूषणों के साथ असली शेरअली को और दूसरी बीरबल को तथा तीसरी नसीबा नामी गुलाम को देकर विदा किया.

नसीबा शेरअली के चरणों में गिरकर अपने अपराध की माफ़ी मांगी और उसको आदरपूर्वक अपने मकान पर ले गया. उसने अपना सारा धन असली शेरअली के हवाले कर दिया.

शेरअली बहुत बड़ा व्यापारी था उसका सारा कारोबार ईमान पर चलता था.

उसने विचार किया कि –” व्यापार से मेरे धन के अतिरिक्त जो कुछ नसीबा गुलाम ने अधिक उपार्जन किया है वह उसके परिश्रम का है. “

उसने अपना असली धन लेकर शेष बचा धन नसीबा के हवाले किया.

और ख़ुशी-ख़ुशी अपने नगर ईरान को लौट गया.

यह भी पढ़ें

Leave a Comment