रामलीला : इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया. बंदरों के भद्दे चेहरे लगाए हुये , आधे टांगो का पाजामा और काले रंग का ऊंचा कुरता पहने आदमियों को दौड़ाते , हू-हू करते देखकर अब हंसी आती है , मज़ा नहीं आता ।
कांशी की रामलीला
काशी की लीला जगतविख्यात है. सूना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं. मैं भी बड़े शौक से गया . पर मुझे तो वहां की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अंतर न दिखाई दिया. हाँ , रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे हैं . राक्षसों और बंदरों के चेहरे पीतल इ है , गदाएँ भी पीतल की है , कदाचित वनवासी भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम के हों ।
लेकिन साज-सामान के सिवा वहां भी वह हू-हू के सिवा कुछ नहीं. फिर भी लाखों आदमियों की भीड़ लगी रहती है. लेकिन एक ज़माना वह था , जब मुझे भी रामलीला में आनंद आता था. आनंद तो बहुत हलका-सा शब्द है. वह आनंद उन्माद से कम न था।
संयोगवश उन दिनों मेरे घर से बहुत थोड़ी दूर पर रामलीला का मैदान था. और जिस घर में लीला -पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था , वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था. दो बजे दिन दिन पात्रों की सजावट होने लगती थी. मैं दोपहर से ही वहां जा बैठता , और जिस तरह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम करता , उस उत्साह से तो आज अपनी पेंशन लेने भी नहीं जाता।
एक कोठरी में राजकुमारी का श्रृंगार होता था. उनकी देह में रामराज पीसकर पोती जाती , मुंह पर पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे , नीले रंग की बुंदकियाँ लगाई जाती थीं. सारा माथा , भौंहे , गाल , ठोढ़ी , बुन्दकियों से रच उठती थीं. एक ही आदमी इस काम में कुशल था. वही बारी-बारी से तीनों पात्रों का श्रृंगार करता था. रंग की प्यालियों में पानी लाना , रामराज पीसना , पंखा झलना मेरा काम था।
जब इन तैयारियों के बाद विमान निकलता , तो उस पर रामचंद्र जी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास , जो गर्व , जो रोमांच होता था. वह अब लाट साहब के दरबार में कुर्सी पर बैठकर भी नहीं होता।
एक बार जब होम-मेंबर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया था. उस वक्त मुझे कुछ इसी तरह का उल्लास , गर्व और रोमांच हुआ था. हाँ , एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब-तहसीलदार में नामजद हुआ , तब भी ऐसी ही तरंगे मन में उठी थी , पर इनमें और उस बाल-विह्र्लता में बड़ा अनतर है. तब ऐसा मालुम होता था कि स्वर्ग में बैठा हूँ।
निषाद-नौका-लीला का दिन था. मैं दो-चार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा था. आज श्रृंगार देखने न गया. विमान भी निकला . पर मैंने खेलना न छोड़ा. मुझे अपना दांव लेना था. अपना दांव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढकर आत्मत्याग की ज़रूरत थी , जितना मैं कर सकता था. अगर दांव देना होता तो मैं कब का भाग खड़ा होता . लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है. खैर , दांव पूरा हुआ।
अगर मैं चाहता , तो धांधली करके दस-पांच मिनट और पदा सकता था . इसकी काफी गुंजाइश थी , लेकिन अब इसका मौका न था. मैं सीधे नाले की तरफ दौड़ा. विमान जल-तट पर पहुँच चूका था।
मैंने दूर से देखा — ” मल्लाह किश्ती लिए आ रह है. दौड़ा , लेकिन आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था. आखिर जब मैं भीड़ हटाता , प्राण-पण से आगे बढ़ता घाट पर पहुंचा , तो निषाद अपनी नौका खोल चूका था. रामचद्र पर मेरी कितनी श्रध्दा थी।
अपने पाठ की चिंता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था . जिससे वह फेल न हो जाए. मुझसे उम्र ज्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे. लेकिन वही रामचंद्र नौका पर बैठे इस तरह मुंह फेरे चले जाते थे . मानो मुझसे जान-पहचान ही नहीं. नक़ल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है. भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी रही है , वह मुझे क्यों उबारते हैं ?
मैं विकल होकर उस बछड़े की भांति कूदने लगा, जिसकी गर्दन पर पहली बार जुआ रखा गया हो. कभी लपककर नाले की ओर जाता , कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ दौड़ता , पर सब-के-सब अपनी धुंन में मस्त थे. मेरी चीख-पुकार किसी के कानों तक न पहुंची. तबसे बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेली , पर उस समय जितना दुःख हुआ , उतना फिर कभी न हुआ।
मैंने निश्चय किया था अब रामचद्र से न कभी बोलूंगा , न कभी खाने की कोई चीज ही दूंगा , लेकिन ज्यों ही नाले को पार करके वह पुल की ओर लौटे , मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया , और ऐसा खुश हुआ , मानो कोई बात ही न हुई थी।
रामलीला की समाप्ति
रामलीला समाप्त हो गयी थी. राजगद्दी होने वाली थी , पर न जाने क्यों देर हो रही थी. शायद चंदा कम वसूल हुआ था. रामचंद्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था. न घर ही जाने की छुट्टी ,मिलती थी , न भोजन का ही प्रबंध होता था. चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था।
बाकी सारे दिन कोई पानी को नहीं पूछता. लेकिन मेरी श्रध्दा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी. मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचद्र ही थे. घर पर मुझे खाने की कोई चीज मिलती , वह लेकर रामचंद्र को से आता. उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था , उतना अप खा जाने में कभी न मिलता. कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेहताशा चौपाल की ओर दौड़ाता. अगर रामचंद्र वहां न मिलते तो उन्हें चारों ओर तलाश करता , और जब तक वह चीज उन्हें न खिला लेता , मुझे चैन न आता था।
राजगद्दी
खैर , राजगद्दी का दिन आया. रामलीला के मैदान में एक बड़ा-सा शमियाना ताना गया. उसकी खूब सजावट की गयी. वेश्याओं के दल भी आ पहुंचे. शाम को रामचंद्र की सवारी निकली , और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गयी. श्रद्धानुसार किसी ने रूपये दिये , किसी ने पैसे।
मेरे पिता पुलिस के आदमी थे , इसलिए उन्होंने बिना कुछ दिए ही आरती उतारी. उस वक्त मुझे जितनी लज्जा आई , उसे बयान नहीं कर सकता. मेरे पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था. मेरे मामा जी दशहरे के पहले आये थे और मुझे एक रुपया दे गए थे. उस रूपये को मैने रख छोड़ा था. दशहरे के दिन भी उसे खर्च नहीं कर सका।
मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया. पिता जी मेरी ओर कुपित-नेत्रों से देखकर रह गए. उन्होंने कहा तो नहीं , लेकिन मुंह ऐसा बना लिया , जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टता से उनके रॉब में बट्टा लग गया. रात के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई. आरती की थाली रुपयों और पैसों से भरी हुई थी. ठीक तो नहीं कह सकता , मगर अब ऐसा अनुमान होता है कि चार-पांच सौ रुपयों से कम न थी।
आबादीजान का नाच गाना
चौधरी साहब इनसे कुछ ज्यादा ही खर्च कर चुके थे. उन्हें इसकी बड़ी फ़िक्र हुई कि किसी तरह कम-से-कम दो सौ रूपये और वसूल हो जाये और इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही मालुम हुई कि वेश्याओं द्वारा महफ़िल में वसूली हो. जब लोग आकर बैठ जायें , और महफ़िल का रंग जम जायें , तो आबादीजान रसिकज्नों की कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दिखाएँ कि लोग शरमाते-शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मरें।
आबादीन और चौधरी साहब में सलाह होने लगी. मैं संयोग से उन दोनों की बातें सुन रहा था. चौधरी साहब ने समझा होगा , यह लड़का क्या मतलब समझेगा. पर यहाँ इश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे. सारी दास्तान समझ में आती-जाती थी।
चौधरी – ” सुनो आबादिजान , यह तुम्हारी ज्यादती है. हमारा और तुम्हारा कोई पहला साबिका तो है नहीं. इश्वर ने चाहा तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा. अब की चन्दा बहुत कम आया. नहीं तो मैं तुमसे इतना इसरार न करता.
आबादी – ” आप मुझसे भी ज़मीदारी चालें चलते है , क्यों ? मगर यहाँ हुजुर की दाल न गलेगी. वाह ! रूपये तो मैं वसूल करूं , और मूंछों पर ताव आप दें. कमाई का अच्छा ढंग निकाला है. इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजा हो जायेंगे. इसके सामने जमींदारी झक मारेगी. बस , कल ही से एक चकला खोल दीजिये. खुदा की कसम माला माल हो जाइयेगा।
चौधरी – ” तुम दिल्लगी करती हो , और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।
आबादी — ” तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं , और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।
आबादी — ” तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं. यहाँ आप-जैसे काँईयों को रोज़ उँगलियों पर नचाती हूँ।
चौधरी — ” आखिर तुम्हारी मंशा क्या है ?
आबादी – जो कुछ वसूल करूं , उसमें आधा मेरा , आधा आपका, लाइये , हाथ मारिये।
चौधरी – यही सही।
आबादी – अच्छा , तो पहले मेरे सौ रूपये गिन दीजिये. पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।
चौधरी – वाह ! वह भी लोगी और यह भी।
आबादी – अच्छा , तो क्या आप समझते हैं थे कि अपनी उजरत छोड़ दूंगी ? वाह री आपकी समझ ! खूब ; क्यों हो . दीवाना बकारे दरवेश हुशियार !
चौधरी – तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है ?
आबादी – अगर आपको सौ दफे गरज हो तो. वर्ना मेरे सौ रूपये तो कहीं गये ही नहीं. मुझे क्या कुत्ते ने काटा है . जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूं ?
चौधरी की एक न चली. आबादी के सामने दबना पड़ा. नाच शुरू हुआ।
अबादिजान बला की शोख औरत थी. एक तो कमसिन , उस पर हसीन और उसकी अदाएं तो इस गजब की थीं कि मेरी तबियत भी मस्त हुई जाती थी. आदमियों के पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था. जिसके सामने बैठ गयी , उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया. पांच रूपये से कम तो शायद ही किसी ने दिए हों. पिता जी के सामने भी वह बैठी. मैं मारे शर्म के गड़ गया. जब उसने उनकी कलाई पकड़ी , तब तो मैं सहम उठा।
मुझे यकीन था कि , पिता जी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें , किन्तु यह क्या हो रहा है ! इश्वर ! मेरी आँखे धोखा तो नहीं खा रही है. पिता जी मूंछों में हँस रहे हैं. ऐसी मृदु-हंसी उनके चेहरे पर मैनें कभी नहीं देखी थी. उनकी आँखों से अनुराग टपका पड़ता था।
उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा ता , मगर इश्वर ने मेरी लाज रख ली. वह देखो, उन्होंने धीरे से आबादी के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुड़ा ली. अरे ! यह फिर क्या हुआ ? आबादी तो उनके गले में बाँहे डाले देती है. अब पिता जी उसे जरुर पीटेंगे. चुड़ैल को ज़रा सा भी शर्म नहीं।
एक महाशय ने मुस्कुराकर कहा – यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी , अबादिजान ! और दरवाजा देखो।
बात तो इन महाशय ने मेरे मन की कही ,और बहुत ही उचित कही , लेकिन न जाने क्यों पिता जी ने उसकी कुपित-नेत्रों से देखा , और मूंछों पर ताव दिया. मुँह से तो वह कुछ न बोले , पर उनकी मुख की आकृति चिल्लाकर सरोश शब्दों में कह रही है थी – तू बनिया ! मुझे समझता क्या है ? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं. रूपये की हकीकत ही क्या ! तेरा जी चाहे , आजमा ले. तुझसे दूनी रकम न डे डालूँ , तो मूँह न दिखाऊं !
महान आश्चर्य ! ‘ घोर अनर्थ ! अरे , ज़मीन तू फट क्यों नहीं जाती ? आकाश तू फट क्यों नहीं पड़ता ? अरे तुझे मौत क्यों नहीं आ जाती ! ‘
पिता जी जेब में हाथ डाल रहे हैं | वह कोई चीज निकाली , और सेठजी को दिखाकर आबादीजान को दे डाली। ‘ आह ! यह तो अशर्फी है। ” चारों ओर तालियाँ बजने लगी. सेठजी उल्लू बन गये. पिता जी ने मूँह की खाई , इसका निश्चय मैं नहीं कर सकता।
मैंने केवल इतना देखा कि पिता जी ने एक अशर्फी निकालकर आबादीजान को दी. उनकी आँखों में इस समय इतना गर्वयुक्त उल्लास था मानों उन्होंने हातिम की कब्र पर लत मारी हो. यही पिता जी हैं , जिन्होंने मुझे आरती में एक रुपया डालते देखकर मेरी ओर इस तरह से देखा था , मानों मुझे फाड़ ही खायेंगे. मेरे उस पर्मोचित व्यवहार से उनके रॉब में फर्क आता था , और इस समय इस घृणित , कुत्सित और निन्दित व्यापार पर गर्व और आनंद से फुले नहीं समाते थे।
आबादीजान ने एक मनोहर मुस्कान के साथ पिता जी को सलाम किया और आगे बढ़ी , मगर मुझसे वहां न बैठा गया. मेरा शर्म के मारे मस्तक झुका जाता था , अगर मेरी आँखों-देखी बात न होती , तो मुझे इस पर कभी एतबार न होता. मैं बाहर जो कुछ देखता-सुनता था. उसकी रिपोर्ट अम्माँ से ज़रूर करता था. पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा. मैं जानता था , उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुःख होगा.
रातभर गाना होता रहा. तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी. जी चाहता था , चलकर देखूँ , पर साहस न होता था. मैं किसी को मूँह कैसे दिखाउंगा ? कहीं किसी ने पिता जी का ज़िक्र छेड़ दिया , तो मैं क्या करूंगा ?
रामचंद्र जी की बिदाई
प्रातः कालम रामचंद्र की बिदाई होने वाली थी. मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा. डर रहा था कि कहीं रामचंद्र चले न गये हों. पहुंचा , तो देखा – तवायफों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं. बीसों आदमी हसरतनाक मूँह बनाये उन्हें घेरे खड़े हैं. मैंने उनकी ओर आँख तक न उठायी. सीधा रामचंद्र के पास पहुंचा. लक्षण और सीता बैठे रो रहे थे , और रामचंद्र खड़े काँधे पर लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे. मेरे सिवा वहां और कोई न था. मैंने कुंठित-स्वर से रामचंद्र से पूछा – क्या तुम्हारी बिदाई हो गयी ?
रामचंद्र – हाँ , हो तो गयी. हमारी बिदाई ही क्या ? चौधरी साहब ने कह दिया – जाओ ,चले जाते हैं।
‘ क्या रुपया और कपड़े नहीं मिले ? “
अभी नहीं मिले. चौधरी साहब कहते हैं – इस वक्त बचत में रूपये नहीं हैं. फिर आकर ले जाना। “
” कुछ नहीं मिला ? “
” एक पैसा भी नहीं. कहते हैं , कुछ बचत नहीं हुई. मैंने सोचा था , कुछ रूपये मिल जायेंगे तो पढ़ने की किताबें ले लूंगा ! सो कुछ न मिला. राह-खर्च भी नहीं दिया. कहते हैं – कौन दूर है , पैदल चले जाओ। “
मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथों लूँ . वेश्याओं के लिए रूपये , सवारियाँ सब कुछ , पर बेचारे रामचंद्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं ! जिन लोगों ने रात को आबादीजान पर दस-दस , बीस-बीस रूपये न्योछावर किये थे , उनके पास क्या इनके लिए दो-दो , चार-चार आने पैसे भी नहीं।
पिता जी ने भी तो आबादीजान को एक अशर्फी दी थी. देखूँ इनके नाम पर क्या देते हैं. मैं दौड़ा हुआ पिता जी के पास गया. वह कहीं तफ्तीश पर जाने को तैयार खड़े थे. मुझे देखकर बोले – कहाँ घूम रहे हो ? पढ्ने के वक्त घुमने की सूझती है ?
मैंने कहा – गया था चौपाल. रामचंद्र विदा हो रहे थे. उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया।
” तो तुम्हें इसकी क्या फ़िक्र पड़ी है। “
” वह जाएंगे कैसे ? पास राह-खर्च भी तो नहीं है ! “
” क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया ? यह चौधरी साहब की बेइंसाफी है ! “
” आप अगर दो रूपये दे दें , तो मैं उन्हें दे आऊँ | में शायद वह घर पहुँच जायें ! “
पिता जी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा – जाओ , अपनी किताब देखो , मेरे पास रूपये नहीं हैं।
यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गये. उसी दिन से पिता जी पर मेरी श्रद्धा उठ गयी. मैंने फिर कभी उनकी डांट-डपट की परवाह नहीं की.
मेरा दिल कहता – आपको मुझको उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है. मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गयी. वह जो कहते , मैं ठीक उसका उल्टा करता. यद्यपि इससे मेरी हानि हुई . लेकिन मेरा अन्तःकरण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।
मेरे पास दो आने पैसे पड़े हुए थे. मैंने पैसे उठा लिये और जाकर शरमाते-शरमाते रामचंद्र को दे दिये. उन पैसों को देखकर रामचंद्र को जितना हर्ष हुआ , वह मेरे लिए आशातीत था. टूट पड़े , मानों प्यासे को पानी मिल गया।
यही दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ विदा हुई ! केवल मैं ही उनके साथ क़स्बे के बाहर तक पहुंचाने आया. उन्हें विदा करके लौटा , तो मेरी आँखे सजल थीं , पर ह्रदय आनंद से उमड़ा हुआ था।
कुछ और कहानियाँ :